छूत अछूत के पाखंडो से,
जात धर्मों के झगड़ों से,
त्रस्त हूँ समाज के खोखले आदर्शों से,
रोज हो रहे बलात्कारों से,
हो रहे नारी पर घरेलू हिंसाओं से,
त्रस्त हूँ समाज के खोखले आदर्शों से,
रोज बिलखती भ्रूणों की चित्कारों से,
दहेज की आग में जलती चिताओं के अंगारों से,
त्रस्त हूँ समाज के खोखले आदर्शों से,
घर परिवार के झगड़ो से,
हो रहे भाई भाई के बंटवारों से,
त्रस्त हूँ समाज के खोखले आदर्शों से,
स्वरचित :- मुकेश राठौड़