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आदर्श

त्रस्त हूँ समाज के खोखले आदर्शों से,

छूत अछूत के पाखंडो से,
जात धर्मों के झगड़ों से,

त्रस्त हूँ समाज के खोखले आदर्शों से,

रोज हो रहे बलात्कारों से,
हो रहे नारी पर घरेलू हिंसाओं से,

त्रस्त हूँ समाज के खोखले आदर्शों से,

रोज बिलखती भ्रूणों की चित्कारों से,
दहेज की आग में जलती चिताओं के अंगारों से,

त्रस्त हूँ समाज के खोखले आदर्शों से,

घर परिवार के झगड़ो से,
हो रहे भाई भाई के बंटवारों से,

त्रस्त हूँ समाज के खोखले आदर्शों से,

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

आगमन की आस

है आगमन की आस तेरे,
कब आओगी पास मेरे,
नैन तरसे दरश को तेरे,
 कब आओगी पास मेरे,
 चौका सूना बिन तेरे,
तके आगमन की राह तेरे,
घर मंदिर के कंगूरे,
पड़ोसी भी पूछ पूछ हारे,
क्या दूं उनको जवाब मेरे,
है आगमन की आस तेरे,
 कब आओगी पास मेरे
घर आंगन सूना बिन तेरे,
बहुत रह लिए अब मां के डेरे,
आ आ जाओ अब पास मेरे,
है आगमन की आस तेरे,
थक चूका हूं कर घर काम तेरे,
अब तो रोम रोम तुझे पुकारे,
है अआगमन की आस तेरे,
आ जाओ अब पास मेरे,
सांझ ढले जब घर को जाऊं,
हर कोना मुझे चिढ़ाये,
हर पल तेरी याद सताये,
लेखन में फिर मन बहलायें,
लेखन में फिर इतने रम गये,
याद में तेरी हम कवि बन गये,
पर हर लेख अधूरे बिन तेरे,
अब तो दिन महीने बीत गये,
अब तो आ जाओ पास मेरे,
 है आगमन की आस तेरे,

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

तृष्णा

जाने कौन तृष्णा थी मन की
मंत्र मुग्ध हुआ तुम्हें पाकर
जीवन सुशोभित किया मेरा
जीवन संगिनी बनकर,
सदियों से था प्रतिक्षीत जीवन,
तृप्त कर दिया तुमने आकर

भर अश्रुधारा नयनन में,
प्रवेश किया इस जीवन में,
भ्रम के अंधियारे थे जीवन में
दूर हुए अब भ्रम के अंधियारे,
सास्वत साथ तुम्हारा पाकर

साथ अपना देकर मन को
तृप्त कर दिया तुमने आकर
सदा रहो मेरे अंतर्मन में
तुमसे ही प्रीत है जीवन में
हुआ धन्य जीवन तुमको पाकर

जब आयी तुम मेरे जीवन में
गूंज उठी दशों दिशाएं,
भर आये रंग चमन में,
जब तक सांस है मेरे इस तन में
सदा रहूंगा साथ इस जीवन में

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

परिवर्तन

क्या परिवर्तन हुआ है कल में और आज में,

कल भी नारी जलती थी सति प्रथा की आग में,
आज भी नारी जलती है दहेज प्रथा की आग में,

क्या परिवर्तन हुआ है कल में और आज में,

कल भी युद्ध होते थे सत्ता की चाह में,
आज भी लड़ते है लोग सत्ता की चाह में,

क्या परिवर्तन हुआ है कल में और आज में,

कल भी होता था चिर हरण भरे दरबार में
आज भी होता है वस्त्र हरण बीच बाजार में,

क्या परिवर्तन हुआ है कल में और आज में,

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

शहीद

मां देख तेरा लाल आया है,
तेरा बेटा आज देश के काम आया है,

तु न कहती थी कि दूध न लजाना,
देख आज तिरंगा भी साथ लाया है,

मां देख तेरा लाल आया है,

दुश्मन को सामने देखकर तेरा ही खयाल आया है,
फिर वंदे मातरम कहकर ये जुनून आया है,

मां देख तेरा लाल आया है,

कोई कहता है क्या सुबूत लाया है,
दुश्मन का सर काटकर अपने साथ लाया है,

मां देख तेरा लाल आया है,

तिरंगे की शान में ये पैगाम लाया है,
तेरा बेटा आज देश के काम आया है,

मां देख तेरा लाल आया है,

एक जवान शहीद हो गया है,
संवेदना के बीज बो गया है,

मां देख तेरा लाल आया है

होकर शहीद वतन की खातिर तेरे अंगना आया है,
शहादत को बना आभूषण मुस्कुराता भाल लाया है

मां देख तेरा लाल आया है,

तेरा बेटा शहीद हुआ ये शोक न करना,
रंज इतना है बुढ़ापे मे तेरे काम ना आया,

मा देख तेरा लाल आया है

होकर शहीद मातृभूमि का कर चुकाया है,

स्वरचित:-मुकेश राठौड़

दीपक

घोर अंधकार हो
चल रही बयार हो
आज द्वार द्वार पर
           यह दिया बुझे नहीं.....

अनगिनत बलिदानों से सजा
स्वतंत्रता का यह दिया,
लो प्रण हर पल यही
        यह दिया बुझे नहीं....

आँधियाँ उठा रहीं,
हलचलें मचा रहीं,
दूर अंधकार हो,
ना कोई क्लेश हो,
  क्षुद्र जीत हार पर,
       यह दिया बुझे नहीं.....

यह दिया स्वतंत्रता का
शहीदों के खून से जला
नेताओं ने  खूब छला,
ध्यान धरो बलिदानों का
       यह दिया बुझे नहीं.....

जिसने दासता की बेड़ियां काटी,
उनकी नेताओं ने जड़े काटी,
कड़ी से कड़ी सजाऐं काटी,
ध्येय था स्वतंत्र हो स्वमाटी,
ध्यान धरो उन वीरों का,
       यह दिया बुझे नहीं.....

इतिहास बनाया आक्रांताओं को,
खूब छला महानताओं को,
ध्यान धरो उन महानों को,
    यह दिया दिया बुझे नहीं....

      यह दिया स्वतंत्रता का,
        यह दिया बुझे नहीं......

     स्वरचित :- मुकेश राठौड़

खामोशी

लेखक कहे लेखनी से,
क्या करेगी तु अगर,
मैं खामोश हो गया,
क्या पता काल का ,
कल मैं खामोश हो गया,

लेखनी कहे लेखक से,
कर दूंगी हर शब्द अमर,
गर तु खामोश हो गया,
भर दूंगी अश्रुताल,
गर तु खामोश हो गया,

साथ दूंगी तेरा ,
काल के कपाल तक,
बन जाऊँगी ज्ञानदीप,
गर घना अंधेरा छा गया,
भर दूंगी अश्रुताल,
गर तु खामोश हो गया,

खामोशी की चोट ये गहरी,
लील जायेगी अंतर्मन तक,
याद रखेगी दुनिया,
बात "मुकेश"की कालांतर तक,

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

यादें

वो बचपन के खेल कैसे याद बन गये,
वो रेत के घरौंदे कैसे आज ढह गये,

याद आता है बचपन सुहाना,
वो खेल खेल में दोस्तों से लड़ जाना,

न जाने कहाँ छुट गये वो प्यार के तराने,
बस यादों में छिप गये मेरे बचपन के अफसाने,

नुक्कड़ के झगड़े अब मुस्कान लाते है,
दोस्तों के संग बीते हर पल याद आते है,

कितना मासूम था वो बचपन का जमाना,
दो पल झगड़ा दो पल में मान जाना,

यादें कुछ कह नहीं पाती वो बस दिल  पसीज जाती है,
जब भी यादें जवाब मांगती है आंखों को रोता पाती है,

होठों पर मुस्कान आंखों को नम कर देती है,
यादें वो अहसास है जो जिंदगी को थामे रखती है,

                          
                               स्वरचित:-मुकेश राठौड़

उम्र और मौत

हे उम्र तु सुन जरा,
दो पल ठहर रिश्ते निभा लूँ जरा,
जिसने मुझे जनम दिया
पाल पोष कर बड़ा किया,
उनको याद कर लूँ जरा,
हे उम्र तु सुन जरा,
दो पल ठहर रिश्ते निभा लूँ जरा,

जिनसे मेरी यारी थी,
कुछ यादें बहुत प्यारी थी,
उनसे आखिरी मुलाकात कर लूँ जरा
हे उम्र तु सुन जरा,
दो पल ठहर रिश्ते निभा लूँ जरा,

जिसको आधा अंग सौंपकर,
अर्धांगिनी स्वीकारा,
अंतिम बार उसकी मांग सजा लूँ जरा,
हे उम्र तु सुन जरा
दो पल ठहर रिश्ते निभा लूँ जरा,

सारी उम्र तो भटकता रहा
बनावटी उसूलों पर,
आज चलूंगा साथ तेरे,
तु ले चल चाहे चीता के फूलों पर
हे उम्र तु सुन जरा
दो पल ठहर रिश्ते निभा लूँ जरा..........

स्वरचित:- मुकेश राठौड़

क्षणिक जीवन

क्षण बड़ा निर्दयी होता है मौत की आगोश में सोता है अपने ही दम पर जीता है अपने ही दम पर मरता है जो जी ले हर क्षण को क्षण उसका ही होता है...

Poems writter