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उम्र और मौत

हे उम्र तु सुन जरा,
दो पल ठहर रिश्ते निभा लूँ जरा,
जिसने मुझे जनम दिया
पाल पोष कर बड़ा किया,
उनको याद कर लूँ जरा,
हे उम्र तु सुन जरा,
दो पल ठहर रिश्ते निभा लूँ जरा,

जिनसे मेरी यारी थी,
कुछ यादें बहुत प्यारी थी,
उनसे आखिरी मुलाकात कर लूँ जरा
हे उम्र तु सुन जरा,
दो पल ठहर रिश्ते निभा लूँ जरा,

जिसको आधा अंग सौंपकर,
अर्धांगिनी स्वीकारा,
अंतिम बार उसकी मांग सजा लूँ जरा,
हे उम्र तु सुन जरा
दो पल ठहर रिश्ते निभा लूँ जरा,

सारी उम्र तो भटकता रहा
बनावटी उसूलों पर,
आज चलूंगा साथ तेरे,
तु ले चल चाहे चीता के फूलों पर
हे उम्र तु सुन जरा
दो पल ठहर रिश्ते निभा लूँ जरा..........

स्वरचित:- मुकेश राठौड़

4 comments:

  1. वाह बेहतरीन रचना भाई

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  2. बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना

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  3. very nice poem.... memorable.. If someone want read any perosnality related articles, business strategies... Please visit chandeldiary.blogspot.com
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  4. कहाँ रुकी है ये उम्र ... वक़्त नहीं रिक्त ...
    कराने होते हैं पल उम्र से ...
    भावपूर्ण ...

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क्षणिक जीवन

क्षण बड़ा निर्दयी होता है मौत की आगोश में सोता है अपने ही दम पर जीता है अपने ही दम पर मरता है जो जी ले हर क्षण को क्षण उसका ही होता है...

Poems writter